Saturday 18 April, 2009

जनता का जूता


एक जूता...दो जूते.....तीन-चार-पांच....................
..... लगता है जूता-चप्पल युग ही शुरु हो गया है....अब तो जूते मारना फैशन बन गया है। तभी तो जिसे देखो जूते मारे जा रहा है। जूता न मिले या अपना जूता महंगा हो तो चप्पल से काम चला लीजिए। है न मजेदार टाइम-पास। काम का काम और सुर्खियां मिलेंगी सो अलग। ...........
बुश को एक पत्रकार के जूते मारने से ये ट्रेडिशन शुरु हुआ। अब हम हिंदुस्तानी तो नकल करने में माहिर हैं। तुरंत नकल कर डाली। जिंदल को जूता मारा, चिदंबरम पर जूता मारा, आडवाणी पर चप्पल फेंका...और और और, अब तो कानपुर के एक गांव में लोग बकायदा जूते मारने की प्रैक्टिस कर रहे हैं।
अच्छा है भई! पांच साल तो धरती को नेताओं के (जूते के) दर्शन नहीं होते औऱ इलेक्शन नजदीक आ जाते हैं मुंह उठाए। जनता को लग रहा है कि अब नेताओं को जूते दिखाने का समय आ गया है। और मौके का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि केवल भारत में ही ऐसा हो रहा है। चीन के राष्ट्रपति को जूते मारने की कोशिश की गई। अफ्रीकी देशों में भी कई जगह ऐसा ही वाकया हुआ। दुनियाभर में ऐसे वीडियोगेम धड़ल्ले से बिक रहे हैं... टी-शर्ट बिक रहे हैं...बेडशीट और चादर बिक रहे हैं। और ये काफी पॉपुलर हो रहे हैं।
लेकिन दोस्तों, एक बात तो सोचो.....क्या जूते मारने से ये सुधर जाएंगे। आप अपनी खुन्नस तो निकाल सकते हैं लेकिन मोटी चमड़ी वालों का क्या? जूते मारो या चप्पल, कुछ फर्क पड़ेगा? तो जनता के जूतों में इतनी ताकत तो है कि वो मीडिया में सुर्खी बटोर सकें, लेकिन उनका असर मापने में थोड़ी देर चलेगी। तबतक हमारे-आपके कहने-करने से कुछ नहीं होगा। जिन्हें जूते चलाना है वो चलाएंगे और जिन्हें खाना है वो खाएंगे.....दोनों बेशर्मी से। और हम मर रहे होंगे शर्म से!

2 comments:

श्यामल सुमन said...

पीने को पानी नहीं तन पे नहीं है वस्त्र।
मजबूरी में ही सही जूता बना है शस्त्र।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

Pramendra Pratap Singh said...

ब्लागरो को भी मासला चाहिये, तो टेस्‍ट और बड़ा देते है