Monday 15 March, 2010

काम करे बैल, हांफे कुत्ता


....बैठक चल रही थी ...... बॉस गुस्से में था .... खूब भाषण दिया...लम्बे इंतज़ार के बाद बैठक ख़त्म हुई ..........
हम तनाव में थे ........
तभी अचानक पास बैठे दोस्त के मुंह से निकला
------ काम करे बैल , हांफे कुत्ता।.............

हम हँसते- हँसते लोटपोट हो गए । तनाव गायब हो गया .... सब हँस रहे थे ...... हम अगली बैठक के लिए तैयार थे ---

-हिमांशु

Wednesday 24 June, 2009

रिश्ते


जिंदगी
चल रही थी अपनी रफ्तार से
तभी आया
एक तूफान।
ढह गए सपने..
जमीनदोज हो गए ख्वाब...
और वो
देखता रह गया,
हाथ मलता...
कुछ न कर पाया
...क्योंकि
जिसे समझता था वो अपनी ताकत
उसके बस में कुछ नहीं था
न उसकी जिंदगी संवारना,
न उसकी अहमियत बनाना।
मौत की बात तो दूर...
जिंदगी से भी तौबा करने लगा वो।
.....इन सीमेंट के जंगलों से टकराकर
टूट गए थे उसके सपने...
चकनाचूर हो गई उसकी हैसियत...
मुश्किल मे फंसा वो
मांगता रहा हरेक से मदद
लेकिन सामने नहीं आया कोई,
उसकी मदद को।
अब सोचता है वो
क्यों रखे उसने ऐसे रिश्ते,
जो समय के साथ बदल जाते हैं,
जो हंसी के हर पल में उसके साथ रहे
लेकिन मुश्किल के झंझावात में फंसते ही,
दूर हो गए सब-
दोस्त...रिश्तेदार...शुभचिंतक...
जेहन में उसके आता है एक ही ख्याल-
क्या यही है,
रिश्तों की असलियत।

Friday 8 May, 2009

ये पप्पू कौन है?


''आज तो छुट्टी का दिन है...थोड़ी देर से उठना है, फिर घर में खाना-पीना और टीवी देखना। दिन तो घर पर ही बिताना है...फिर शाम को पूरी फैमिली के साथ बाहर जाना...घूमना-फिरना...मौज-मस्ती।''

ये है भारत में इलेक्शन के दिन मिडिल क्लास के दिनभर का प्लान। ध्यान दीजिए, इसमें कहीं भी वो बूथ पर जाना और वोट करना शामिल नहीं। वोटिंग के नाम पर ऑफिस से छुट्टी लेनेवाला शख्स वोटिंग बूथ पर जाने से कतराता है। लेकिन यही आदमी देश की दुर्दशा और पॉलिटिक्स के बारे में बोलना शुरु करता है तो रुकता नहीं.......एक प्रोफेसर की तरह बोलता ही चला जाता है।

आज इस टॉपिक पर मुझे इसलिए लिखना पड़ा कि कल यानि ७ मई को दिल्ली में लोकसभा के लिए मतदान का दिन था। ऑफिस के लिए निकला तो देखा- रोड पर जैसे मुर्दानी छाई थी। अमूमन १ घंटे में ऑफिस का रास्ता तय होता है, कल ३० मिनट में पहुंच गया। आश्चर्य हुआ, जैसे शहर सोया हुआ है। ऑफिस पहुंचा तो देखा- १० फीसदी से ज्यादा लोगों ने वोट नहीं डाला था।

लोगों ने भी कई प्रैक्टिकल मजबूरियां गिनाईं-

#अपने शहर से मेट्रोज में आए ज्यादातर लोगों का नाम वहां की लिस्ट में शामिल नहीं है। ये काम इतना जटिल है कि लोग वोटिंग से ही तौबा ही कर लेते हैं।

# ज्यादातर प्राइवेट ऑफिस में काम करनेवाले लोगों को छुट्टी नहीं मिल पाती।

# कई लोगों के नाम वोटर लिस्ट से गायब रहते हैं।

# रोज-रोज की भागम-भाग से परेशान आम आदमी एक दिन की एक्सट्रा छुट्टी एन्जॉय करना चाहता है और इसके लिए पप्पू बनने के लिए भी तैयार रहता है।

# सबसे बड़ी बात- मतदान अनिवार्य नहीं है, और भारतीयों की खासियत है सबतक कोई काम जरूरी न हो वो उसे टालते ही रहते हैं। शायद हम स्वभाव से आलसी हैं।

# लंबी चुनाव प्रक्रिया से उबकर भी कई लोग वोटिंग से तौबा कर लेते हैं- क्या महीने भर से एक ही खबर, एक ही काम- चुनाव..चुनाव...चुनाव....

अब आप ही बताइए, लोग पप्पू बन रहे हैं या उन्हें बनाया जा रहा है???????



Saturday 18 April, 2009

जनता का जूता


एक जूता...दो जूते.....तीन-चार-पांच....................
..... लगता है जूता-चप्पल युग ही शुरु हो गया है....अब तो जूते मारना फैशन बन गया है। तभी तो जिसे देखो जूते मारे जा रहा है। जूता न मिले या अपना जूता महंगा हो तो चप्पल से काम चला लीजिए। है न मजेदार टाइम-पास। काम का काम और सुर्खियां मिलेंगी सो अलग। ...........
बुश को एक पत्रकार के जूते मारने से ये ट्रेडिशन शुरु हुआ। अब हम हिंदुस्तानी तो नकल करने में माहिर हैं। तुरंत नकल कर डाली। जिंदल को जूता मारा, चिदंबरम पर जूता मारा, आडवाणी पर चप्पल फेंका...और और और, अब तो कानपुर के एक गांव में लोग बकायदा जूते मारने की प्रैक्टिस कर रहे हैं।
अच्छा है भई! पांच साल तो धरती को नेताओं के (जूते के) दर्शन नहीं होते औऱ इलेक्शन नजदीक आ जाते हैं मुंह उठाए। जनता को लग रहा है कि अब नेताओं को जूते दिखाने का समय आ गया है। और मौके का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है।
ऐसा नहीं है कि केवल भारत में ही ऐसा हो रहा है। चीन के राष्ट्रपति को जूते मारने की कोशिश की गई। अफ्रीकी देशों में भी कई जगह ऐसा ही वाकया हुआ। दुनियाभर में ऐसे वीडियोगेम धड़ल्ले से बिक रहे हैं... टी-शर्ट बिक रहे हैं...बेडशीट और चादर बिक रहे हैं। और ये काफी पॉपुलर हो रहे हैं।
लेकिन दोस्तों, एक बात तो सोचो.....क्या जूते मारने से ये सुधर जाएंगे। आप अपनी खुन्नस तो निकाल सकते हैं लेकिन मोटी चमड़ी वालों का क्या? जूते मारो या चप्पल, कुछ फर्क पड़ेगा? तो जनता के जूतों में इतनी ताकत तो है कि वो मीडिया में सुर्खी बटोर सकें, लेकिन उनका असर मापने में थोड़ी देर चलेगी। तबतक हमारे-आपके कहने-करने से कुछ नहीं होगा। जिन्हें जूते चलाना है वो चलाएंगे और जिन्हें खाना है वो खाएंगे.....दोनों बेशर्मी से। और हम मर रहे होंगे शर्म से!

Thursday 2 April, 2009

फिजा का फसाना
लीजिए...फिजा हीरोइन बन गई। कमाल खान उन्हें देशद्रोही-2में लीड रोल दे रहे हैं। माना जा रहा है कि वे फिल्म में वकील की भूमिका में दिखेंगी। हालांकि फिजा ने अभी तक इस पूरे मसले पर मुंह नहीं खोला है लेकिन बहुत कम मुमकिन है कि वे इस ऑफर को मना कर पाएं।

वैसे भी फिजा का चेहरा आम लोगों की नजर में आ चुका है। उन्हें लोगों की सहानुभूति हासिल है। पहले समाज के खिलाफ विद्रोह करके और फिर प्यार में धोखा खाने के बाद एक प्रभावशाली परिवार के खिलाफ आवाज बुलंद करके वे ऐसे ही होरोइन बन चुकी है। बार-बार मीडिया के सामने आकर वे छोटे पर्दे का जाना-माना चेहरा तो बन ही चुकी है।...

तो तैयार हो जाएं फिर से एक धमाकेदार फिल्म के लिए...कमाल खान वैसे भी दिन-ब-दिन के कंट्रोवर्सियल मसलों को सिल्वर स्क्रीन पर लाने में ज्यादा इत्तेफाक रखते हैं। देखते हैं फिजा बड़े पर्दे पर कितना धमाल मचा पाती हैं।

Wednesday 1 April, 2009


भारत द्वारा विकसित किए जा रहे स्पेस शटल का मॉडल जो दुबारा भी काम में लाया जा सकेगा
- साभार- ' द हिंदू '

Tuesday 24 February, 2009

पब्लिक पावर




जिसका इंतजार था वो हो गया। सरकार ने एक्साइज ड्यूटी और सर्विस टैक्स की दरों में कमी का ऐलान कर दिया। हो सकता है, अगले कुछ दिनों में पेट्रोल-डीजल के दामों में फिर से कमी करने की घोषणा भी हो जाए। ये सब तमाशा होगा चुनाव की घोषणा से पहले। फिर सरकार कहेगी, हमने अपनी ड्यूटी की। उधर विपक्ष गला फाड़कर चिल्लाता रहेगा। सरकार कहेगी हम आम लोगों की भलाई चाहते हैं.....विपक्ष कहेगा ये सरकार निकम्मी है, ये सब चुनावी घोषणाएं हैं।.....


यही हमारी डेमोक्रेसी है?....जिसके लिए न जाने हम क्या-क्या दावे करते हैं। इलेक्शन से पहले जनता को सबकुछ सस्ता दे दो। लोगों को लगे कि सरकार ने उसकी भलाई में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रखी है।


...........चुनाव में जमकर पैसे लुटाओ। सफेद-काला सब। जो जीता वो सिकंदर। फिर इलेक्शन के बाद महंगाई से क्या डरना। जनता तो मूर्ख बन चुकी। अब आम जनता की पाई-पाई निकाल लो। जितना पैसा लुटा, उसका दुगुना वसूल लो। कुछ बड़े-बड़े साहूकारों तो जनकर इलेक्शन में पैसा लगाते हैं। जैसे ये चुनाव नहीं घोड़ों की रेस हो-या फिर कार्ड का खेल।


समय आ गया है कि जनता इन हथकंडों को समझे और उसी के हिसाब से सोच बनाए। ऐसा नहीं है कि इन चीजों को जानती नहीं, लेकिन उसके पास विकल्पों की कमी है। इसका एक ही उपाय है- जनता को विकल्प खुद चुनने होंगे। अच्छे लोगों की कमी की दुहाई देकर वो कर्तव्य से पीछे नहीं हट सकती।


जनता से ही अच्छे लोग सामने आएं। वे व्यवस्था को बदलें। यहीं उपाय है। मुंबई हमलों के बाद गेटवे ऑफ इंडिया की रैली से जनता अपनी ताकत दिखा चुकी है। वैसा ही एक मौका फिर से हमारे सामने हैं। आइए, हम एकबार फिर से एकजुटता का संदेश देकर ये साबित करें कि असंभव कुछ भी नहीं।


विचारों का स्वागत है,


-हिमांशु