Friday 6 February, 2009

एक पल का सपना

पेड़ की सूखी टहनियों से झांकती चांदनी
रात को बर्फानी बना रही है,
देखकर इसे दिल को
आता है सकूं।

बारिश हो रही है पीयूष की
भींग रही है यादें
वो खोए पल जो चाहे-अनचाहे
याद दिला देते हैं खुद की।

कितना चैन है-आराम है
बीते कल की झील के किनारे,
समय और रिश्तों की नदी में
न कोई तरंग है- न कोई उफान।

दो पल बचा सकूं, उसे याद कर सकूं उसे
जिसे न भुला पाया कभी,
सहलाती रहे समीर
निश्चिंत हो डूबा रहे मन यूं ही।।

5 comments:

Vinay said...

बहुत सुन्दर नज़्म है

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गुलाबी कोंपलें

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत ही उम्दा रचना है।

mehek said...

bahut sundar

Param said...

लगातार दो कविताएं...दोनों अलग-अलग मूड की..और दोनों ही बेहतर...कहना मुश्किल है कौन बेहतरीन है। बस इसी तरह आगे भी लिखते रहिए...
आपका
परम

Vivek Vashistha said...

kavi mahoday bhadhiya likha hai.