Thursday 12 February, 2009

वसंत की खोज




भटक रहा हूं मैं अरसे से-
शहर में खोजता वासंती रंग
कहीं तो मिले-
खिले फूल, कोयल की कूक...
लेकिन,
दीवार और दूरी के फासले ने
शायद हर रिश्ते पर
चढ़ा दिया है दूसरा ही रंग।

आज वसंत मुरझाया- सा क्यूं है !
हरेक चेहरा अलसाया-सा क्यूं है!
सोचता हूं- मैं हरपल
ऐ खुदा...
जिंदगी में सब पाकर भी,
इतना वीराना-सा क्यूं है!

क्या सोचता है ऐ दिल
मुश्किल खड़ी है हरपल,
जहां को देखने की फुरसत नहीं
और तू कहता है-
क्या होगा कल ?


2 comments:

Vinay said...

कविता पढ़कर आनन्द आ गया!

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गुलाबी कोंपलें | चाँद, बादल और शाम

Vivek Vashistha said...

वाह वाह